85. ब्रह्मज्ञान
‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! महायोगीश्वर संकर्षण! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगत्के साक्षात् कारणस्वरूप प्रधान और पुरुषके भी नियामक परमेश्वर हो ।।३।। इस जगत्के आधार, निर्माता और निर्माणसामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत्के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडाके लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूपमें जो कुछ रहता है, होता है—वह सब तुम्हीं हो। इस जगत्में प्रकृति-रूपसे भोग्य और पुरुषरूपसे भोक्ता तथा दोनोंसे परे दोनोंके नियामक साक्षात् भगवान् भी तुम्हीं हो ।।४।। इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भावविकारोंसे रहित परमात्मन्! इस चित्र-विचित्र जगत्का तुम्हींने निर्माण किया है और इसमें स्वयं तुमने ही आत्मारूपसे प्रवेश भी किया है। तुम प्राण (क्रियाशक्ति) और जीव (ज्ञानशक्ति) के रूपमें इसका पालन-पोषण कर रहे हो ।।५।। क्रियाशक्तिप्रधान प्राण आदिमें जो जगत्की वस्तुओंकी सृष्टि करनेकी सामर्थ्य है, वह उनकी अपनी सामर्थ्य नहीं, तुम्हारी ही है। क्योंकि वे तुम्हारे समान चेतन नहीं, अचेतन हैं; स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र हैं। अतः उन चेष्टाशील प्राण आद