85. ब्रह्मज्ञान

 ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! महायोगीश्वर संकर्षण! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगत्‌के साक्षात् कारणस्वरूप प्रधान और पुरुषके भी नियामक परमेश्वर हो ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। इस जगत्‌के आधार, निर्माता और निर्माणसामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत्‌के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडाके लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूपमें जो कुछ रहता है, होता है—वह सब तुम्हीं हो। इस जगत्‌में प्रकृति-रूपसे भोग्य और पुरुषरूपसे भोक्ता तथा दोनोंसे परे दोनोंके नियामक साक्षात् भगवान् भी तुम्हीं हो ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠।


इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भावविकारोंसे रहित परमात्मन्! इस चित्र-विचित्र जगत्‌का तुम्हींने निर्माण किया है और इसमें स्वयं तुमने ही आत्मारूपसे प्रवेश भी किया है। तुम प्राण (क्रियाशक्ति) और जीव (ज्ञानशक्ति) के रूपमें इसका पालन-पोषण कर रहे हो ⁠।⁠।⁠५⁠।⁠। क्रियाशक्तिप्रधान प्राण आदिमें जो जगत्‌की वस्तुओंकी सृष्टि करनेकी सामर्थ्य है, वह उनकी अपनी सामर्थ्य नहीं, तुम्हारी ही है। क्योंकि वे तुम्हारे समान चेतन नहीं, अचेतन हैं; स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र हैं। अतः उन चेष्टाशील प्राण आदिमें केवल चेष्टामात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो तुम्हारी है ⁠।⁠।⁠६⁠।⁠। प्रभो! चन्द्रमाकी कान्ति, अग्निका तेज, सूर्यकी प्रभा, नक्षत्र और विद्युत् आदिकीस्फुरणरूपसे सत्ता, पर्वतोंकी स्थिरता, पृथ्वीकी साधारणशक्तिरूप वृत्ति और गन्धरूप गुण—ये सब वास्तवमें तुम्हीं हो ⁠।⁠।⁠७⁠।⁠। परमेश्वर! जलमें तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करनेकी जो शक्तियाँ हैं, वे तुम्हारा ही स्वरूप हैं। जल और उसका रस भी तुम्हीं हो। प्रभो! इन्द्रियशक्ति, अन्तःकरणकी शक्ति, शरीरकी शक्ति, उसका हिलना-डोलना, चलना-फिरना—ये सब वायुकी शक्तियाँ तुम्हारी ही हैं ⁠।⁠।⁠८⁠।⁠। दिशाएँ और उनके अवकाश भी तुम्हीं हो। आकाश और उसका आश्रयभूत स्फोट—शब्दतन्मात्रा या परा वाणी, नाद—पश्यन्ती, ओंकार—मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थोंका अलग-अलग निर्देश करनेवाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी तुम्हीं हो ⁠।⁠।⁠९⁠।⁠। इन्द्रियाँ, उनकी विषयप्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता तुम्हीं हो! बुद्धिकी निश्चयात्मिका शक्ति और जीवकी विशुद्ध स्मृति भी तुम्हीं हो ⁠।⁠।⁠१०⁠।⁠। भूतोंमें उनका कारण तामस अहंकार, इन्द्रियोंमें उनका कारण तैजस अहंकार और इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ-देवताओंमें उनका कारण सात्त्विक अहंकार तथा जीवोंके आवागमनका कारण माया भी तुम्हीं हो ⁠।⁠।⁠११⁠।⁠। भगवन्! जैसे मिट्टी आदि वस्तुओंके विकार घड़ा, वृक्ष आदिमें मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तवमें वे कारण (मृत्तिका) रूप ही हैं—उसी प्रकार जितने भी विनाशवान् पदार्थ हैं,उनमें तुम कारणरूपसे अविनाशी तत्त्व हो। वास्तवमें वे सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं ⁠।⁠।⁠१२⁠।⁠।

प्रभो! सत्त्व, रज, तम—ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ (परिणाम)—महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मामें, तुममें योगमायाके द्वारा कल्पित हैं ⁠।⁠।⁠१३⁠।⁠। इसलिये ये जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे तुममें सर्वथा नहीं हैं। जब तुममें इनकी कल्पना कर ली जाती है, तब तुम इन विकारोंमें अनुगत जान पड़ते हो। कल्पनाकी निवृत्ति हो जानेपर तो निर्विकल्प परमार्थस्वरूप तुम्हीं तुम रह जाते हो ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠। यह जगत् सत्त्व, रज, तम—इन तीनों गुणोंका प्रवाह है; देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण, सुख, दुःख और राग-लोभादि उन्हींके कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी तुम्हारा, सर्वात्माका सूक्ष्मस्वरूपनहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप अज्ञानके कारण ही कर्मोंके फंदेमें फँसकर बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकते रहते हैं ⁠।⁠।⁠१५⁠।⁠। 

परमेश्वर! मुझे शुभ प्रारब्धके अनुसार इन्द्रियादिकी सामर्थ्यसे युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ। किन्तु तुम्हारी मायाके वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थसे ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु यों ही बीत गयी ⁠।⁠।⁠१६⁠।⁠। प्रभो! यह शरीर मैं हूँ और इस शरीरके सम्बन्धी मेरे अपने हैं, इस अहंता एवं ममतारूप स्नेहकी फाँसीसे तुमने इस सारे जगत्‌को बाँध रखा है ⁠।⁠।⁠१७⁠।⁠। 

मैं जानता हूँ कि तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, सम्पूर्ण प्रकृति और जीवोंके स्वामी हो। पृथ्वीके भारभूत राजाओंके नाशके लिये ही तुमने अवतार ग्रहण किया है। यह बात तुमने मुझसे कही भी थी ⁠।⁠।⁠१८⁠।⁠। इसलिये दीनजनोंके हितैषी, शरणागतवत्सल! मैं अब तुम्हारे चरणकमलोंकी शरणमें हूँ; क्योंकि वे ही शरणागतोंके संसारभयको मिटानेवाले हैं। अब इन्द्रियोंकी लोलुपतासे भर पाया! इसीके कारण मैंने मृत्युके ग्रास इस शरीरमें आत्मबुद्धि कर ली और तुममें, जो कि परमात्मा हो, पुत्रबुद्धि ⁠।⁠।⁠१९⁠।⁠। प्रभो! तुमने प्रसव-गृहमें ही हमसे कहा था कि ‘यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, फिर भी मैं अपनी ही बनायी हुई धर्म-मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये प्रत्येक युगमें तुम दोनोंके द्वारा अवतार ग्रहणकरता रहा हूँ।’ भगवन्! तुम आकाशके समान अनेकों शरीर ग्रहण करते और छोड़ते रहते हो। वास्तवमें तुम अनन्त, एकरस सत्ता हो। तुम्हारी आश्चर्यमयी शक्ति योगमायाका रहस्य भला कौन जान सकता है? सब लोग तुम्हारी कीर्तिका ही गान करते रहते हैं ⁠।⁠।⁠२०⁠।⁠।

ŚB 10.85.3

कृष्ण कृष्ण महायोगिन् सङ्कर्षण सनातन 

जाने वामस्य यत् साक्षात् प्रधानपुरुषौ परौ ॥ ३ ॥

[Vasudeva said:] O Kṛṣṇa, Kṛṣṇa, best of yogīs, O eternal Saṅkarṣaṇa! I know that You two are personally the source of universal creation and the ingredients of creation as well.ŚB 10.85.

यत्र येन यतो यस्य यस्मै यद् यद् यथा यदा 

स्यादिदं भगवान् साक्षात् प्रधानपुरुषेश्वर: ॥ ४ ॥

You are the Supreme Personality of Godhead, who manifest as the Lord of both nature and the creator of nature [Mahā-Viṣṇu]. Everything that comes into existence, however and whenever it does so, is created within You, by You, from You, for You and in relation to You.।4।

प्रधान और पुरुषके भी नियामक परमेश्वर हो ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। इस जगत्‌के आधार, निर्माता और निर्माणसामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत्‌के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडाके लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूपमें जो कुछ रहता है, होता है—वह सब तुम्हीं हो। इस जगत्‌में प्रकृति-रूपसे भोग्य और पुरुषरूपसे भोक्ता तथा दोनोंसे परे दोनोंके नियामक साक्षात् भगवान् भी तुम्हीं हो ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠।

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